सर्द हवाएँ ओढ़कर, स्वयं हुआ निस्तेज।
स्वयं हुआ निस्तेज, धर्म अपना ही भूला
कुछ दिन की है बात, प्यार से सहज कबूला।
अब तो उगते प्रात, दांत लगते हैं बजने
किरणें दी हैं भेज, कहाँ जाने सूरज ने।
लोग घरों में कैद हैं, पंछी दुबके नीड़।
चौराहे पर अब नहीं दिखती वैसी भीड़।
दिखती वैसी भीड़, बर्फ ने की बमबारी।
कुहरे ने ऐलान, किया कर्फ़्यू का जारी।
दिखते गाँव अलाव, और हीटर शहरों में।
पंछी दुबके नीड़, कैद हैं लोग घरों में।
-कल्पना रामानी
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