नारी अब तो उड़ चली, आसमान की ओर।
चाँद
सितारे छू रही, थाम विश्व की
डोर।
थाम
विश्व की डोर, जगत ने शीश नवाया
दृढ़
निश्चय के साथ, हार को जीत
दिखाया।
पाया
यश सम्मान, दंग है
दुनिया सारी।
नये
वक्त के साथ, चल पड़ी है अब
नारी।
घरनी
से ही घर सजे, जुड़ें दिलों
के तार
श्रम
उसका अनमोल है, घर की वो
आधार।
घर
की वो आधार, महकता रहता
आँगन
बरसे
प्यार अपार, लगे पतझड़ भी सावन।
सीधी
सच्ची बात, ‘कल्पना’ इतनी कहनी
स्वर्ग
बने संसार, अगर घर में
हो घरनी।
मैं
नारी अबला नहीं, बल्कि लचकती
डाल।
मेरा
इस नर-जूथ से, केवल एक
सवाल।
केवल
एक सवाल, उसे क्यों
समझा कमतर
जिसके
उर में व्योम और कदमों में सागर।
परिजन-प्रेम, ममत्व, मोह
की हूँ मारी मैं
मेरा
बल परिवार, नहीं अबला, नारी मैं।
नर-नारी
दो चक्र हैं, जीवन रथ की
शान।
बना
रहेगा संतुलन, गति हो अगर
समान।
गति
हो अगर समान, नहीं पथ होगा
बाधित।
गृह-गुलशन गुलदान, रहेगा सदा सुवासित।
हर
मुश्किल आसान, करेगी सोच
हमारी।
बढ़ें
हाथ से हाथ, मिलाकर यदि
नर-नारी।
घर
बाहर के बोझ से,
नारी
है बेचैन।
हक़
तो उसने पा लिए, मगर खो दिया
चैन।
मगर
खो दिया चैन,
बढ़ाया
बोझा अपना।
किसे
सुनाए दर्द,
स्वयं
ही बोया सपना।
करें
स्वजन सहयोग, अगर अब आगे
रहकर
बँट जाएगा बोझ, रहे
बाहर या फिर घर।
- कल्पना रामानी
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