दुनिया
बड़ी कमाल की, कहते हैं सब गोल।
रिश्ते
हों या प्रेम हो, सबका लगता मोल।
सबका
लगता मोल, हुई
हर बात दिखावा
सतही
मन इंसान, बन
गया एक छलावा।
ओढ़े
हुए नकाब, फिर
रहे ज्ञानी गुनिया
कहे
कल्पना गोल, बड़ी अद्भुत यह दुनिया।
दुःख
सागर जो मानते, दुनिया को
इंसान।
खुद
जोड़े उसने सभी, व्यर्थ साज सामान।
व्यर्थ
साज सामान, दुःखों का बोझ बढ़ाते
बरबादी
की ओर, कदम
फिर बढ़ते जाते।
भरते
अपने हाथ, कुटिल
कर्मों की गागर
दुनिया
को नादान, कहें
फिर दुःख का सागर।
जब
तक दुनिया में रहें, क्रियाशील हों अंग।
अगर
यंत्र इक बन गए, लग जाएगी जंग।
लग
जाएगी जंग, स्वत्व ही खो जाएगा
कर्म
कोश नाकाम, एक दिन हो जाएगा।
निर्भर
होंगे मीत, मशीनों पर ही कब तक?
क्रियाशील
हों अंग, रहें
दुनिया में जब तक।
नज़र
उठाकर देखिये, कुदरत के वरदान।
पाएँगे दूरान्त तक, दुनिया
स्वर्ग समान।
दुनिया
स्वर्ग समान, दिया दाता ने इतना।
रंग, गंध, रस, रूप, लुटाएँ चाहें जितना।
कहनी इतनी बात, जिएँ हर पल मुस्काकर
दुनिया स्वर्ग समान, देखिये नज़र उठाकर।
-कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत सुन्दर कुण्डलियाँ कल्पना जी...
सादर
अनु
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