Friday 23 November 2012

कुछ दिन भाया कोहरा








दस्तक से पलकें खुलीं, देखी सुंदर भोर।
शीत खड़ी थी सामने, कुहरा था पुरजोर।
कुहरा था पुरजोर, धुआँ ही धुआँ बिछा था।
भूगत होकर सूर्य, न जाने कहाँ छिपा था।
रहे काँपते गात, न आया दिनकर जब तक
पर मन भाई भोर, और कुहरे की दस्तक।
128)
दर पर आई शीत है,  धर कुहरे का ताज।
ऋतु-रानी का आज से, होगा एकल राज।
होगा एकल राज, व्यर्थ है छिपकर रहना
पट खोलो हे मीत,  मान कुदरत का गहना।  
कहनी इतनी बात, निहारो, नयन-नज़ारे  
धार कुहरे का ताज, शीत है आई दर पर।    

कुछ दिन भाया कोहरा, बढ़ी अचानक शीत।
ठंडक सिर पर चढ़ गई, भूले कविता गीत।
भूले कविता गीत, गुम हुआ दिन में दिनकर।
तन को लिया लपेट, गरम वस्त्रों में जी भर।
काँपे थर थर गात,  डसे दिन सूरज के बिन।
बढ़ी अचानक शीत,  कोहरा भाया कुछ दिन।

नदिया कुहरे की दिखी, हुए बहुत हैरान।
कल तक थी रौनक जहाँ, वहाँ दिखा सुनसान।
वहाँ दिखा सुनसान, धुंध के देखे बादल,  
सूरज अंतर्ध्यान, शीत का फैला आँचल।
सिहर उठे जन जीव, फूल-फल, आँगन-बगिया,
हुए बहुत हैरान, देख कुहरे की नदिया।
1


-कल्पना रामानी

No comments:

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

जंगल में मंगल

जंगल में मंगल

प्रेम की झील

प्रेम की झील