Monday, 27 May 2013

गर्मी का यह रूप














पग लिपटे बंजर धरा, तन झुलसाती धूप।
हलक सुखाता जा रहा, गर्मी का यह रूप।
गर्मी का यह रूप, गजब तेवर दिखलाए
रह रह करती घात, हवा कातिल मुस्काए।
नन्हीं सी यह जान, प्यास से कैसे निपटे
तन झुलसाती धूप, धरा बंजर पग लिपटे। 


जल-संरक्षण का भला, कहाँ किसी को भान।
पल पल पानी हो रहा, भू से अंतर्ध्यान।
भू से अंतर्ध्यान, सिर्फ है दोहन जारी
शक्त उर्वरा भूमि, हो चली बंजर सारी।
ढूँढ रहे हैं दीन, धूप में जल-जल, जल-कण
सिर्फ सफों में कैद, आज भी जल-संरक्षण। 
 
पहले तो ऐसी न थी, इस धरती की पीर।
सहज सुलभ थीं रोटियाँ, कदम-कदम था नीर।
कदम-कदम था नीर, आज है घोर कुहासा
सूखे में घट थाम, फिर रहा बचपन प्यासा।
कौन धरेगा कान, बात जिससे यह कह ले
इस धरती की पीर, नहीं थी ऐसी पहले।


-कल्पना रामानी

2 comments:

Rajendra kumar said...

बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति,आभार आदरेया.

shashi purwar said...

आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (29-05-2013) के सभी के अपने अपने रंग रूमानियत के संग ......! चर्चा मंच अंक-1259 पर भी होगी!
सादर...!

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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