पग लिपटे बंजर धरा, तन झुलसाती धूप।
हलक सुखाता जा रहा, गर्मी का यह रूप।
गर्मी का यह रूप, गजब तेवर दिखलाए
रह रह करती घात, हवा कातिल मुस्काए।
नन्हीं सी यह जान, प्यास से कैसे निपटे
तन झुलसाती धूप, धरा बंजर पग लिपटे।
जल-संरक्षण का भला, कहाँ किसी को भान।
पल पल पानी हो रहा, भू से अंतर्ध्यान।
भू से अंतर्ध्यान, सिर्फ है दोहन जारी
शक्त उर्वरा भूमि, हो चली बंजर सारी।
ढूँढ रहे हैं दीन, धूप में जल-जल, जल-कण
सिर्फ सफों में कैद, आज भी जल-संरक्षण।
पहले तो ऐसी न थी, इस धरती की पीर।
सहज सुलभ थीं रोटियाँ, कदम-कदम था नीर।
कदम-कदम था नीर, आज है घोर कुहासा
सूखे में घट थाम, फिर रहा बचपन प्यासा।
कौन धरेगा कान, बात जिससे यह कह ले
इस धरती की पीर, नहीं थी ऐसी पहले।
-कल्पना रामानी
2 comments:
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति,आभार आदरेया.
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (29-05-2013) के सभी के अपने अपने रंग रूमानियत के संग ......! चर्चा मंच अंक-1259 पर भी होगी!
सादर...!
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